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वट सावित्री पर्व के मौके मन्दिर में पूजा करने जाती पचपकरिया की महिलायें |
बनबसा। आप सबसे शक्तिशाली हैं। आपके सामर्थ्य में संपूर्ण-सृष्टि समाहित है। आपसे तो काल भी भय खाता है। आपने स्वयं के सामर्थ्य को भुला दिया है। आपको कोई नहीं डरा सकता। आपके समीप पातिव्रत्य का वह सामर्थ्य है, जिसके आगे ब्रह्मा,विष्णु और स्वयं शिव जी की भी शक्तियां निस्तेज हो जाती हैं। सावित्री के आंखों में आंख डालने का सामर्थ तो यमराज में भी नहीं था। जिससे स्वयं यमराज भी हार गए, वह सावित्री स्वरूप आप ही हैं।
सर्वप्रथम प्रकृति, धार्मिक आस्था व मानव के अटूट बंधन, सौभाग्य की वृद्धि एवं भारतीय संस्कारों के प्रतीक वट सावित्री व्रत-पूजन की सभी सुहागिन माताओं - बहनों को मेरी ओर से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
पूरे देश में आज वट सावित्री पर्व को धूमधाम से मनाया जा रहा है साथ ही हमारे बनबसा में भी माताओं बहनों द्वारा आज यह पर्व धूम-धाम से मनाया गया। बनबसा में महिलाओं ने पचपकरिया स्थित पूर्णागिरि मंदिर में पूजा पाठ करके, अपने पतियों की लंबी आयु और कोरोना महामारी से इस संसार को मुक्ति मिले इसके लिये प्रार्थना की। सभी माता-बहनों ने देवी सावित्री जैसे ही अपने पत्नीव्रता धर्म को निभाने का प्रण भी लिया। इस अवसर पर वट सावित्री-पर्व की कथा भी सुनायी गयी।
क्या है वट सावित्री व्रत कथा?
आइये विस्तार से जानते हैं कि आखिर क्या है वट सावित्री व्रत की कथा। लेकिन उस से पहले जानते हैं आखिर कब और क्यों रखा जाता है वट सावित्री का व्रत।
वट सावित्री व्रत क्यों और कब रखा जाता है:-
सुहागिन स्त्रियों द्वारा पति की लंबी आयु के लिए रखा जाने वाला व्रत वट सावित्री व्रत आज यानी 10 जून को था। यह व्रत हर वर्ष ज्येष्ठ मास की अमावस्या को रखा जाता है। धार्मिक मान्यता है कि इस दिन सावित्री ने अपने पति सत्यवान के प्राण वापस लौटाने के लिए यमराज को भी विवश कर दिया था। इस व्रत के दिन सत्यवान-सावित्री कथा को भी पढ़ा या सुना जाता है।
वट सावित्री व्रत कथा-
मद्रदेश में अश्वपति नाम के धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। उनके संतान नहीं थी। राजा ने संतान हेतु यज्ञ करवाया। कुछ समय बाद उन्हें एक कन्या की प्राप्ति हुई। उसका नाम उन्होंने सावित्री रखा। विवाह योग्य होने पर सावित्री को वर खोजने के लिए कहा गया तो उसने वनवासी राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पतिरूप में वरण किया। यह बात जब नारद जी को मालूम हुई तो वे राजा अश्वपति से बोले कि सत्यवान अल्पायु हैं। एक वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु हो जायेगी। नारद जी की बात सुनकर उन्होंने पुत्री को समझाया, पर सावित्री सत्यवान को ही पति रूप में पाने के लिये अडिग रहीं।
सावित्री के दृढ़ रहने पर आखिर राजा अश्वपति ने सावित्री और सत्यवान का विवाह कर दिया। सावित्री अपना समस्त राजवैभव त्याग कर अपने सास-ससुर व पति की सेवा में लगी रही और उनके साथ वन में रहने लगी। नारद जी ने मृत्यु का जो दिन बताया था, उस दिन भी सत्यवान रोज की भाँति वन में लकड़ी काटने को जाने लगे, तो सावित्री भी सत्यवान के साथ वन को चली गई। वन में सत्यवान ज्योंहि पेड़ पर चढ़ने लगा, उसके सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी। वह सावित्री की गोद में अपना सिर रखकर लेट गये और धीरे धीरे मूर्छित होने लगे। थोड़ी देर बाद सावित्री ने देखा कि अनेक दूतों के साथ हाथ में पाश लिए यमराज खड़े हैं। यमराज सत्यवान के अंगुप्रमाण जीव को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। इस पर सावित्री भी उनके पीछे पीछे चल दी।
सावित्री को आते देख यमराज ने कहा, ‘हे पतिपरायणे! जहां तक मनुष्य साथ दे सकता है, तुमने अपने पति का साथ दे दिया। अब तुम लौट जाओ।’ सावित्री ने कहा, ‘जहां तक मेरे पति जाएंगे, वहां तक मुझे जाना चाहिए। यही सनातन सत्य है।’
यमराज ने सावित्री की धर्मपरायण वाणी सुनकर वर मांगने को कहा। सावित्री ने कहा, ‘मेरे सास-ससुर अंधे हैं, उन्हें नेत्र-ज्योति दें।’ यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे लौट जाने को कहा, किंतु सावित्री उसी प्रकार यम के पीछे चलती रही। यमराज ने उससे पुन: वर मांगने को कहा।
सावित्री ने वर मांगा, ‘मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाए।’ यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे लौट जाने को कहा, परंतु सावित्री अडिग रही। सावित्री की पति भक्ति व निष्ठा देखकर यमराज पिघल गये। उन्होंने एक और वर मांगने के लिए कहा, तब सावित्री ने वर मांगा, ‘मैं सत्यवान के 100 पुत्रों की मां बनना चाहती हूं। कृपा कर आप मुझे यह वरदान दें।’
यमराज सावित्री की पति-भक्ति से प्रसन्न हो गये, उन्होंने अखण्ड सौभाग्य के आशीर्वाद के साथ इस अंतिम वरदान को देते हुए यमराज ने सत्यवान को पाश से मुक्त कर दिया और अदृश्य हो गये। उसके बाद सावित्री अब उसी वट वृक्ष के पास आयी जिस वट वृक्ष के नीचे पड़े सत्यवान का मृत शरीर था। अब सत्यवान के शरीर में धीरे - धीरे जीवन का संचार हुआ और वह उठकर बैठ गया। सत्यवान के माता-पिता की आंखें ठीक हो गयीं और खोया हुआ राज्य वापस मिल गया।
सावित्री अपने पति को लेकर वट वृक्ष के नीचे ही बैठी थीं। इसीलिए इस दिन महिलाएं अपने परिवार और जीवनसाथी की दीर्घायु की कामना करते हुए वट (बरगद) वृक्ष को भोग अर्पण करती हैं, उस पर धागा लपेट कर उसकी पूजा करती हैं।
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